बचपन के बाद जब ,जिस दिन भी , जिस पल भी ,हम सब कुछ समझने लगते हैं....वही सब जिसे दुनियादारी कहते हैं....उसी समय से लगता है जैसे एक आवरण, कोई मुखौटा ओढ के ...या कि वो खुद ब खुद ही हमें ढक लेता है ..जीने लगते हैं। ये मुखौटा ..समय असमय हमारे असली स्वरूप , हमारे सच को, छुपाने बचाने का काम करता है । ऐसा नहीं है कि हर बार ये किसी गलत उद्देश्य ...या किसी गलत नीयत के कारण होता है...बल्कि कई बार तो इस पर आपका....हमारा नियंत्रण भी नहीं होता ,.मगर ये आवरण आ जरूर जाता है ।तो आज इस मंच पर यही सवाल है आपसे मुखातिब..बताईये क्या आपको भी यही लगता है। क्या आप भी ओढ लेते हैं ऐसे आवरण....या कोई है ऐसा आपके आसपास..जो आपको लगता है कि ..जिसका सच का रूप आपके सामने नहीं आता .....और जो भी आपके मन में हो.....बांटिये न..। इस बात को आपकी प्रतिक्रियाओं के बाद आगे बढाया जाएगा...॥
सोमवार, 2 नवंबर 2009
आवरण ओढे जिंदगी...
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