गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

बस दिल्ली का समाचार है

सबसे पहले हम पहुँचे।
हो करके बेदम पहुँचे।
हर चैनल में होड़ मची है,
दिखलाने को गम पहुँचे।

सब कहने का अधिकार है।
चौथा-खम्भा क्यूँ बीमार है।
गाँव में बेबस लोग तड़पते,
बस दिल्ली का समाचार है।

समाचार हालात बताते।
लोगों के जज्बात बताते।
अंधकार में चकाचौंध है,
दिन को भी वे रात बताते।

चौथा - खम्भा दर्पण है।
प्रायः त्याग-समर्पण है।
भटके हैं कुछ लोग यही तो,
सुमन-भाव का अर्पण है।

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

खार में भी प्यार है

वक्त के संग चल सके तो, जिन्दगी श्रृंगार है
वक्त से मिलती खुशी भी, वक्त ही दीवार है

वक्त कितना वक्त देता, वक्त की पहचान हो
वक्त मरहम जो समय पर, वक्त ही अंगार है

वक्त से आगे निकलकर, सोचते जो वक्त पर
वक्त के इस रास्ते पर, हर जगह तलवार है

क्या है कीमत वक्त की, जो चूकते, वो जानते
वक्त उलझन जिन्दगी की, वक्त से उद्धार है

वक्त होता क्या किसी का, चाल अपनी वक्त की
उस रिदम में चल सुमन तो, खार में भी प्यार है

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

कुछ लोगों की फितरत है

मान बढ़ाकर, मान घटाना, कुछ लोगों की फितरत है
कारण तो बस अपना मतलब, जो काबिले नफ़रत है

गलती का कठपुतला मानव, भूल सभी से हो सकती
गौर नहीं करते कुछ इस पर, कुछ की खातिर इबरत है

आज सदारत जो करते हैं, दूर सदाकत से दिखते
बढ़ती मँहगाई को कहते, गठबन्धन की उजरत है

कुछ पानी बिन प्यासे रहते, कुछ पानी में डूब रहे
किसे फिक्र है इन बातों की, ये पेशानी कुदरत है

जागो सुमन सभी मिलकर के, बदलेंगे हालात तभी
फिर आगे ऐसा करने की, नहीं किसी की जुर्रत है

इबरत - नसीहत, बुरे काम से शिक्षा
उजरत - बदला, एवज में
पेशानी - किस्मत

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

अखबारों का छपना देखा

मुस्कानों में बात कहो
चाहे दिन या रात कहो
चाल चलो शतरंजी ऐसी
शह दे कर के मात कहो

जो कहते हैं राम नहीं
उनको समझो काम नहीं
याद कहाँ भूखे लोगों को
उनका कोई नाम नहीं

अखबारों का छपना देखा
लगा भयानक सपना देखा
कितना खोजा भीड़ में जाकर
मगर कोई न अपना देखा

मिलते हैं भगवान् नहीं
आज नेक सुलतान नहीं
बाहर की बातों को छोडो
मैं खुद भी इंसान नहीं

अनबन से क्या मिलता है
जीवन व्यर्थ में हिलता है
भूलो दुख और खुशी समेटो
सुमन खुशी से खिलता है

रविवार, 8 अप्रैल 2012

भाई से प्रतिघात करो

मजबूरी का नाम न लो
मजबूरों से काम न लो
वक्त का पहिया घूम रहा है
व्यर्थ कोई इल्जाम न लो

धर्म, जगत - श्रृंगार है
पर कुछ का व्यापार है
धर्म सामने पर पीछे में
मचा हुआ व्यभिचार है

क्या जीना आसान है
नीति नियम भगवान है
न्याय कहाँ नैसर्गिक मिलता
भ्रष्टों का उत्थान है

रामायण की बात करो
भाई से प्रतिघात करो
टूट रहे हैं रिश्ते सारे
कारण भी तो ज्ञात करो

सुमन सभी संजोगी हैं
कहते मगर वियोगी हैं
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

खुदा भी क्या मौसम देते हैं

खुशियाँ जिनको हम देते हैं
वो बदले में गम देते हैं

जख्म मिले हैं उनसे अक्सर
हम जिनको मरहम देते हैं

हैं नफरत के काबिल फिर भी
प्रीत उन्हें हरदम देते हैं

देहरी उनके दीप जलाया
जो लोगों को तम देते हैं

जिनकी वाणी में अंगारा
व्यर्थ उन्हें शबनम देते हैं

बरसातों में प्यासी धरती
खुदा भी क्या मौसम देते हैं

सबकुछ सुमन दिया अपनों को
फिर भी कहते कम देते हैं

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

मंहगाई के रंग

मंहगाई के रंग

अपने अपने ढंग से लोग आध्यात्मिक-वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर कहते रहते हैं कि जीवन में अलग अलग रंगों का अलग अलग प्रभाव पड़ता है। लगता है यह किंचित सच भी है। तभी तो "उजला कपड़ा" पहने लोगों के "काले धन" को निकलवाने के लिए "भगवाधारियों" के साथ साथ पूरे देश में लोग गुस्से से "लाल पीले" हो रहे हैं और लगातार बढ़ती मँहगाईयों के कारण आमलोगों के चेहरे पर से "खुशियों की हरियाली" गायब हो रही है।

सीख लिया

रो कर मैंने हँसना सीखा, गिरकर उठना सीख लिया
आते-जाते हर मुश्किल से, डटकर लड़ना सीख लिया

महल बनाने वाले बेघर, सभी खेतिहर भूखे हैं
सपनों का संसार लिए फिर, जी कर मरना सीख लिया

दहशतगर्दी का दामन क्यों, थाम लिया इन्सानों ने
धन को ही परमेश्वर माना, अवसर चुनना सीख लिया

रिश्ते भी बाज़ार से बनते, मोल नहीं अपनापन का
हर उसूल अब है बेमानी, हटकर सटना सीख लिया

फुर्सत नहीं किसी को देखें, सुमन असल या कागज का
जब से भेद समझ में आया, जमकर लिखना सीख लिया

रविवार, 1 अप्रैल 2012

मच्छड़ का फिर क्या करें

मैंने पूछा साँप से दोस्त बनेंगे आप।
नहीं महाशय ज़हर में आप हमारे बाप।।

कुत्ता रोया फूटकर यह कैसा जंजाल।

सेवा नमकहराम की करता नमकहलाल।।

जीव मारना पाप है कहते हैं सब लोग।

मच्छड़ का फिर क्या करें फैलाता जो रोग।।

दुखित गधे ने एक दिन छोड़ दिया सब काम।

गलती करता आदमी लेता मेरा नाम।।

बीन बजाये नेवला साँप भला क्यों आय।

जगी न अब तक चेतना भैंस लगी पगुराय।।

नहीं मिलेगी चाकरी नहीं मिलेगा काम।

न पंछी बन पाओगे होगा अजगर नाम।।

गया रेल में बैठकर शौचालय के पास।

जनसाधारण के लिये यही व्यवस्था खास।।

रचना छपने के लिये भेजे पत्र अनेक।

सम्पादक ने फाड़कर दिखला दिया विवेक।।