रविवार, 23 मई 2010

तक़दीर

दोस्तों,
मंच पे आज एक कविता ..........

तक़दीर
दूर शहर से अपने घर से लौटा एक कारीगर
सोचता जाता और बुद्बदाता
हे बिधाता - तुझ से kuch न छिपा है
न मेरी गरीवी और न मेरी मजबूरी
तो मैं kyo हूँ मजबूर
जर ये तो बता हजूर ,
रात का समय हो रहा था
और कारीगर रो रहा था ,
आज उसकी दुकान पर ताला लग गया था
किराया न देने के करण कुछ लालची लोगो ने ,
अपना लाभ के लिए पहल दुकान के ग्राहक को भगाया ,
और आज उस्कारिगर को ,
गरीब को मरने के लिए न तलवार है
न कतार है भाले चाकू बेकार है ,
वो मरता है तो क़ानून से
kanoon जहान झूठ झूठ है
और गरीव sach sach है ........


शेष समय मिलने पर .............





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