मंच पे आज एक कविता ..........
तक़दीर
दूर शहर से अपने घर से लौटा एक कारीगर
सोचता जाता और बुद्बदाता
हे बिधाता - तुझ से kuch न छिपा है
न मेरी गरीवी और न मेरी मजबूरी
तो मैं kyo हूँ मजबूर
जर ये तो बता हजूर ,
रात का समय हो रहा था
और कारीगर रो रहा था ,
आज उसकी दुकान पर ताला लग गया था
किराया न देने के करण कुछ लालची लोगो ने ,
अपना लाभ के लिए पहल दुकान के ग्राहक को भगाया ,
और आज उस्कारिगर को ,
गरीब को मरने के लिए न तलवार है
न कतार है भाले चाकू बेकार है ,
वो मरता है तो क़ानून से
kanoon जहान झूठ झूठ है
और गरीव sach sach है ........
शेष समय मिलने पर .............
दूर शहर से अपने घर से लौटा एक कारीगर
सोचता जाता और बुद्बदाता
हे बिधाता - तुझ से kuch न छिपा है
न मेरी गरीवी और न मेरी मजबूरी
तो मैं kyo हूँ मजबूर
जर ये तो बता हजूर ,
रात का समय हो रहा था
और कारीगर रो रहा था ,
आज उसकी दुकान पर ताला लग गया था
किराया न देने के करण कुछ लालची लोगो ने ,
अपना लाभ के लिए पहल दुकान के ग्राहक को भगाया ,
और आज उस्कारिगर को ,
गरीब को मरने के लिए न तलवार है
न कतार है भाले चाकू बेकार है ,
वो मरता है तो क़ानून से
kanoon जहान झूठ झूठ है
और गरीव sach sach है ........
शेष समय मिलने पर .............
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