शनिवार, 25 अप्रैल 2009

चम्बल का इतिहास

सुप्रिया रोय


चंबल घाटी, फरवरी।ताज महल से 50 किलोमीटर आगे निकलिए तो एक चौराहा आता है। वहां भीमराव अंबेडकर की मूर्ति लगी है। इस चौराहे के आगे एक बाजार है जहां बहुत भीड़ होती है। अगर आपको इस भीड़ से मुक्ति चाहिए तो एक छोटी लेकिन अच्छी सड़क आपकी प्रतीक्षा कर रही है। यह सड़क खेड़ा राठौर की है। थोड़ा विस्तार से बताया जाए तो यह असली दस्यु सम्राट मान सिंह का गांव है।

आम तौर पर चंबल घाटी के गांवों में से जैसे बीहड़ी गांव होते है, वैसा ही खेड़ा राठौर है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस गांव में एक मंदिर है जहां दो डाकुओं की मूर्ति लगी है। एक मान सिंह और दूसरे रूपा की। जाति से अलग ये दोनों डाकू एक ही गिरोह के सदस्य थे बल्कि रूपा तो मान सिंह के बेटे की तरह थी। इस मंदिर में पूजा भी होती है और मान सिंह के नाम पर रचा गया चालीसा भी गाया जाता है।


दरअसल मान सिंह चंबल घाटी में एक किंवदंती की तरह है। डाकू तो इस इलाके में कोई किसी को बोलता नहीं, मान सिह को भी आदि बागी कहा जाता है। मान सिंह शायद पहले ऐसे बागी डाकू थे जिन्हें ब्रिटिश पुलिस ने गंभीरता से लिया। 1955 में चंबल घाटी में ब्रिटिश पुलिस बची हुई थी और भिंड के पास बरोही की तिवरिया गांव के पास एक बीहड़ में पुलिस ने मान सिंह को मार गिराया। उनके साथ उनके बेटे सूबेदार सिंह भी मारे गए।

मान सिंह के निधन के बाद लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का डाकू गैंग के नेता बने। वास्तव में मान सिंह जब बूढ़े, मोटे और बीमार हो चुके थे तभी लोकमन को उन्होंने गिरोह की जिम्मेदारी दे दी थी और गुस्से में लाखन सिंह गिरोह छोड़ कर चले गए थे और तीन महीने बाद एक मुठभेड़ में मारे गए थे। लोकमन दीक्षित ने बाद में विनोबा भावे के सामने भिंड में चंबल घाटी का पहला आत्मसमर्पण किया और जहां उन्होंने समर्पण्ा किया उसी मैदान के पास बनी कॉलोनी में एक छोटे से मकान में 96 साल की उम्र में रहते हैं। उनका बड़ा बेटा सतीश केंसर से मर गया और छोटा बेटा अशोक एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया। लोकमन दीक्षित कहते हैं कि आखिर मैंने जब लोगों को मारते वक्त उनकी या उनके खानदान की गिनती नहीं की तो मुझे अपने बच्चों की मौत पर रोने का क्या अधिकार है? सच तो यह है कि एक दिन सड़क पर चलते हुए एक रिक्शे वाला एक जमाने में चंबल घाटी के सबसे सफल निशानेबाज आतंक लोकमन दीक्षित को टक्कर मार कर और फिर लात मार कर चला गया था तो भी वे चुप रहे थे और उनका एकमात्र जवाब यह था कि मैंने जिंदगी में जितने पाप किए हैं उनमें से एक किसी छोटे से पाप की सजा मुझे मिली है।

डाकू मान सिंह खेड़ा राठौर में अपनी जमीन पर कब्जा होने की वजह से डाकू बने थे। चंबल घाटी में हाल के इतिहास को छोड़ दिया जाए तो डाकू बनने की वजह आम तौर पर जमीन ही होती है। लोकमन और रूपा तब बच्चे थे और स्कूल में साथ पढ़ते थे। इसलिए वे भी साथ हो लिए। मान सिंह ने अपने जीवन में कभी किसी महिला का अपहरण नहीं किया, किसी बच्चे को जान से नहीं मारा और बलात्कार जैसी घटनाएं तो उनके गिरोह के लिए पाप थी। पुतलीबाई के प्रेमी के तौर पर मशहूर सुल्ताना को उन्होंने बलात्कार के इल्जाम में ही गिरोह से बाहर किया था।

मान सिंह के एक मात्र जीवित पुत्र तहसीलदार सिंह को एक मुठभेड़ के दौरान पकड़े जा कर फांसी सजा दी जा चुकी थी। यह सजा सुप्रीम कोर्ट तक से पास हो चुकी थी। भारत के राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के तत्कालीन यदुनाथ सिंह भी पद से ब्रिगेडियर थे लेकिन रहने वाले खेड़ा राठौर के थे। उन्होंने राष्ट्रपति से कहा और राष्ट्रपति ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से कहा कि अगर तहसीलदार सिंह की फांसी माफ कर दी जाती है तो चंबल घाटी से सबसे बड़ा डाकू गिरोह आत्मसमर्पण के लिए तैयार है। जवाहर लाल नेहरू ने मामला मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू को सौप दिया। काटजू माफी देने के मूड में नहीं थे। संयोग से उसी समय संत विनोबा भावे की पद यात्रा चल रही थी और प्रसिद्व पत्रकार प्रभाष जोशी उस पद यात्रा में शामिल थे। तब तक वे प्रसिद्व नहीं हुए थे लेकिन प्रभाष जी ने नेहरू को पत्र लिखा कि आप चंबल घाटी में और ज्यादा लाशे चाहते हैं या शांति?

नेहरू ने काटजू को फोन कर के कहा कि यह समर्पण होना ही है। प्रभाष जोशी और उनके साथ गए अनुपम मिश्रा ने काटजू से बात की, यह भी कहा कि जो डाकू समर्पण करेंगे उन्हें हर कीमत पर बाकी जीवन बिताने की सुविधा मिलनी चाहिए। काटजू पर नेहरू का दबाव था और इसीलिए उन्होंने लोकमन दीक्षित को मुरैना जिले में तीस एकड़ और बाकी सदस्यों को भी उनकी हैसियत के हिसाब से जमीन आवंटित की। इस तरह यह समर्पण संपन्न हुआ।

मान सिंह दुनिया में नहीं थे। उनके बेटे तहसीलदार सिंह बहुत समय तक जीवित रहे। भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें कैश करवाने की कोशिश भी की। मुलायम सिंह यादव के खिलाफ जसवंत नगर से उन्हें उम्मीदवार बनाया गया। एक विशेष जहाज भी उन्हें दिया गया। उस दौरान भी तहसीलदार सिंह से मैंने कहा था कि राजनीति आपका इस्तेमाल कर रही है। मगर लंबे कद के तहसीलदार सिंह ने मेरी सहपाठी पोती संतोष को गवाह बना कर कहा कि वे अगर सांसद बन गए तो डाकू समस्या निपटाने के लिए पूरा जीवन लगा देंगे। यह बात अलग है कि वे चुनाव हार गए और इसके बाद भाजपा ने भी उनकी कोई खबर नहीं ली। अटल बिहारी वाजपेयी से एक विमान यात्रा के दौरान जब पूछा तो उन्होंने कहा कि तहसीलदार सिंह ने उन्हें गलत जानकारी दी थी।

अटल जी के अनुसार तहसीलदार ने उन्हें बताया था कि वे भी हृदय परिवर्तन कर के आत्मसमर्पण करने वालों की सूची में शामिल थे। उन्होंने इस बात पर अवाक होने की भंगिमा बनाई कि तहसीलदार सिंह ने आत्मसमर्पण नहीं किया था बल्कि उत्तर प्रदेश के औरैया इलाके में एक मुठभेड़ के दौरान चार पुलिस वालों को मारने के बाद उन्हें पकड़ा गया था। अटल जी की अपनी राजनैतिक बाध्यताएं हो सकती है लेकिन अब तहसीलदार सिंह भी दुनिया में नहीं हैं मगर लोकमन दीक्षित है और पूरे होश में हैं, उनसे असलियत पूछी जा सकती है।


चम्बल का इतिहास जनादेश से लिया गया है

http://janadesh।in/InnerPage।aspx?Category_Id=13
ambrish_kumar2000@yahoo।com

2 टिप्‍पणियां:

mark rai ने कहा…

kaphi achchhi jankaari...

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सूचनाएँ बहुत खरी हैं।